माँ  की टूटी चारपाई

माँ जिद कर रही थी कि उसकी चारपाई गैलरी में डाल दी जाये। बेटा परेशान था। बहू बड़बड़ा रही थी..... कोई बुजुर्गों को अलग कमरा नही देता। हमने दूसरी मंजिल पर कमरा दिया.... सब सुविधाएं हैं, नौकरानी भी दे रखी है। पता नहीं, सत्तर की उम्र में सठिया गईं हैं?


माँ कमजोर और बीमार हैं.... जिद कर रही हैं तो उनकी चारपाई गैलरी में डलवा ही देता हूँ। निकित ने सोचा। माँ  की इच्छा की पू्री करना उसका स्वभाव था।



अब गैलरी में आ गई थी। हर समय चारपाई पर पड़ी रहने वाली माँ अब टहलते टहलते गेट तक पहुंच जाती। कुछ देर लान में टहलती। लान में खेलते नाती - पोतों से बातें करती, हंसती, बोलतीं और मुस्कुराती। कभी-कभी बेटे से मनपसंद खाने की चीजें लाने की फरमाईश भी करती। खुद खाती, बहू - बटे और बच्चों को भी खिलाती..... धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य अच्छा होने लगा था।


दादी मेरी बाल फेंको... गेट में प्रवेश करते हुए निकित ने अपने पाँच वर्षीय बेटे की आवाज सुनी तो बेटे को डांटने लगा... 
अंशुल मां बुजुर्ग हैं उन्हें ऐसे कामों के लिए मत बोला करो।


पापा दादी रोज हमारी बॉल उठाकर फेंकती हैं....अंशुल भोलेपन से बोला।


क्या... "निकित ने आश्चर्य से माँ की तरफ देखा? हां बेटा तुमने ऊपर वाले कमरे में सुविधाएं तो बहुत दी थीं। लेकिन अपनों का साथ नहीं था। तुम लोगों से बातें नहीं हो पाती थी। जब से गैलरी मे चारपाई पड़ी है, निकलते बैठते तुम लोगों से बातें हो जाती है। शाम को अंशुल -पाशी का साथ मिल जाता है।


माँ कहे जा रही थी.... और निकित सोच रहा था..... 


बुजुर्गों को शायद भौतिक सुख सुविधाऔं से ज्यादा अपनों के साथ की जरूरत होती है।